जीव विज्ञान क्या है?
जीव विज्ञान वह विज्ञान है जिसमें हम जीवित प्राणियों का अध्ययन करते हैं। इसमें पौधे, जानवर, सूक्ष्मजीव और मनुष्य सभी शामिल होते हैं। जीव विज्ञान हमें यह समझने में मदद करता है कि जीवित प्राणी कैसे जन्म लेते हैं, कैसे बढ़ते हैं, उनका शरीर कैसे काम करता है और वे अपने वातावरण से कैसे जुड़ते हैं। सरल शब्दों में कहें तो जीव विज्ञान जीवन का विज्ञान है।
“Biology” शब्द की उत्पत्ति
“Biology” शब्द यूनानी (Greek) भाषा से लिया गया है। यह दो शब्दों से मिलकर बना है – “Bios” जिसका अर्थ है जीवन और “Logos” जिसका अर्थ है अध्ययन या ज्ञान। इसलिए “Biology” का सीधा अर्थ है – जीवन का अध्ययन।
सबसे पहले उपयोग किसने किया?
“Biology” शब्द का सबसे पहला प्रयोग 1802 ईस्वी में Jean-Baptiste Lamarck (जीन बैप्टिस्ट लामार्क) और Gottfried Reinhold Treviranus नामक वैज्ञानिकों ने स्वतंत्र रूप से किया था। दोनों ने इस शब्द का उपयोग जीवित प्राणियों के वैज्ञानिक अध्ययन को परिभाषित करने के लिए किया।
अरस्तू (Aristotle) को जीव विज्ञान का जनक (Father of Biology) कहा जाता है, क्योंकि उन्होंने सबसे पहले पौधों और जानवरों का वर्गीकरण किया और उनके जीवन-चक्र पर गहराई से अध्ययन किया।
सजीव क्या हैं?
धरती पर पाई जाने वाली वह अवस्था, जिसमें जन्म, वृद्धि, पोषण, उपापचय, श्वसन, उत्सर्जन, गमन, जनन और जैव विकास जैसी जीवन क्रियाएँ निरंतर चलती रहती हैं, उसे सजीव कहते हैं। यही गुण उन्हें निर्जीव वस्तुओं से अलग करते हैं।
वृद्धि
सजीवों की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता है कि वे जन्म लेने के बाद अपने जीवन-चक्र के विभिन्न चरणों में लगातार आकार, लंबाई और भार में वृद्धि करते हैं। यह वृद्धि केवल बाहरी नहीं होती, बल्कि कोशिकाओं की संख्या और आकार दोनों में इज़ाफा होता है। उदाहरण के लिए – शिशु का वयस्क बनना या बीज का वृक्ष में बदलना। बांस का पौधा एक दिन में लगभग 90 सेंटीमीटर तक बढ़ सकता है। यह धरती पर सबसे तेज़ी से बढ़ने वाले पौधों में से एक है। मानव शरीर में रोज़ लगभग 330 अरब कोशिकाएँ बदल जाती हैं, जिससे शरीर की वृद्धि और मरम्मत निरंतर चलती रहती है।
पोषण
सभी सजीवों को जीवन क्रियाओं के लिए ऊर्जा चाहिए। पौधे सूर्य के प्रकाश, जल और कार्बन डाइऑक्साइड से भोजन बनाते हैं, जिसे प्रकाश संश्लेषण कहते हैं। जानवर और मनुष्य अपने भोजन को बाहरी स्रोतों से प्राप्त करते हैं। प्रकाश संश्लेषण के दौरान पौधों द्वारा छोड़ी गई ऑक्सीजन न केवल उनके लिए बल्कि सभी जीव-जंतुओं के जीवन के लिए भी आवश्यक है, इसी कारण पृथ्वी को “ग्रीन प्लैनेट” कहा जाता है। नीली व्हेल प्रतिदिन लगभग 3–4 टन क्रिल नामक झींगे जैसे जीव खाती है, यह पोषण की अद्भुत क्षमता को दर्शाता है।
उपापचय
उपापचय वह रासायनिक प्रक्रिया है जिसमें भोजन को ऊर्जा में बदला जाता है और शरीर की आवश्यकताओं के लिए प्रयोग किया जाता है। इसमें दो क्रियाएँ शामिल होती हैं – अपचय जिसमें जटिल अणुओं को तोड़कर ऊर्जा प्राप्त की जाती है, और संधान जिसमें साधारण अणुओं से जटिल पदार्थ बनाए जाते हैं। मानव शरीर का उपापचय इतना सक्रिय है कि यदि यह कुछ ही मिनटों के लिए रुक जाए तो जीवन समाप्त हो सकता है। हम जो भी भोजन करते हैं उसका प्रयोग केवल ऊर्जा बनाने में नहीं बल्कि शरीर की मरम्मत और ऊतक निर्माण में भी होता है।
श्वसन
श्वसन एक आवश्यक प्रक्रिया है जिसमें जीव ऑक्सीजन लेकर भोजन के अणुओं को तोड़ते हैं और ऊर्जा प्राप्त करते हैं। यही ऊर्जा सभी जीवन क्रियाओं की मूल शक्ति है। औसतन मनुष्य एक मिनट में 12–20 बार साँस लेता है और जीवन भर में लगभग 60 करोड़ साँसें लेता है। पहाड़ों पर ऑक्सीजन कम होने के कारण वहाँ श्वसन की दर बढ़ जाती है और शुरुआती दिनों में लोग जल्दी थकान महसूस करते हैं।
उत्सर्जन
सजीवों के शरीर में उपापचय से अपशिष्ट पदार्थ बनते हैं। यदि ये बाहर न निकाले जाएँ तो शरीर को हानि पहुँचा सकते हैं। इसलिए इन्हें उत्सर्जन प्रक्रिया द्वारा बाहर निकाला जाता है। मानव शरीर का पसीना न केवल शरीर को ठंडा करता है बल्कि उसमें मौजूद लवण और अपशिष्ट पदार्थ भी बाहर निकालता है। पौधे अतिरिक्त जल को वाष्पोत्सर्जन द्वारा बाहर निकालते हैं, यह प्रक्रिया जलचक्र को संतुलित बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
गमन
सभी सजीवों में किसी न किसी प्रकार का गमन अवश्य पाया जाता है। पौधों में यह आंतरिक रूप में जैसे जड़ों द्वारा जल का ऊपर की ओर जाना होता है, जबकि जानवर और मनुष्य बाहरी रूप से चलने-फिरने में सक्षम होते हैं। चीता लगभग 110 किमी/घंटा की रफ़्तार से दौड़ सकता है, जो धरती का सबसे तेज़ स्थलीय गमन है। पौधे भी गमन करते हैं, जैसे सूरजमुखी का फूल दिनभर सूर्य की ओर घूमता है जिसे फोटोट्रोपिज़्म कहा जाता है।
जनन
सजीवों की एक मुख्य विशेषता यह है कि वे अपनी संतति उत्पन्न करते हैं जिससे उनकी प्रजातियाँ बनी रहती हैं। यह लैंगिक और अलैंगिक दोनों तरीकों से हो सकता है। अमीबा केवल एक कोशिका वाला जीव है, लेकिन यह विभाजित होकर लाखों संतति उत्पन्न कर सकता है। सीहॉर्स नामक समुद्री जीव में नर गर्भधारण करता है, जो जनन की प्रक्रिया का सबसे अनोखा उदाहरण है।
जैव विकास
सजीव समय के साथ पर्यावरण के अनुसार बदलते हैं। यही परिवर्तन नई प्रजातियों के जन्म और पुरानी के लुप्त होने का कारण बनते हैं। चार्ल्स डार्विन ने प्राकृतिक वरण के सिद्धांत द्वारा इसे समझाया। आधुनिक पक्षियों का विकास डायनासोर से हुआ है और आज भी उनके पंखों व हड्डियों में समानता पाई जाती है। मनुष्य का सीधा खड़ा होना और अंगूठे की पकड़ विकास की देन है, जिसने औज़ार बनाने और सभ्यता की स्थापना में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
वर्गीकरण
धरती पर पाए जाने वाले असंख्य सजीवों को उनके समान गुणों, संरचना और कार्यों के आधार पर समूहों में बाँटने की प्रक्रिया को वर्गीकरण कहते हैं। यह विज्ञान की वह शाखा है जो जीवों को पहचानने, नाम देने और व्यवस्थित ढंग से वर्गीकृत करने का कार्य करती है।
वर्गीकरण की आवश्यकता
पृथ्वी पर लाखों प्रकार के पौधे और जानवर पाए जाते हैं। यदि इन्हें बिना क्रमबद्ध किए देखा जाए तो अध्ययन करना असंभव होगा। वर्गीकरण की आवश्यकता इन कारणों से होती है –
- जीवों की विविधता को व्यवस्थित रूप से समझने के लिए।
 - समान लक्षण वाले जीवों को एक समूह में रखकर उनका गहन अध्ययन करने के लिए।
 - नई प्रजातियों की पहचान करने और पुरानी प्रजातियों के बीच संबंध स्थापित करने के लिए।
 - जीवों के विकास क्रम और पारस्परिक संबंध जानने के लिए।
 
वर्गीकरण का इतिहास
अरस्तु (Aristotle) – जीवों के वर्गीकरण का प्रारंभिक प्रयास किया। उन्होंने जीवों को उनके रहने के स्थान (जलचर, स्थलचर, वायवीय) के आधार पर बाँटा।
लिनियस (Carolus Linnaeus) – “आधुनिक वर्गीकरण का जनक” कहलाते हैं। इन्होंने द्विनामी पद्धति (Binomial nomenclature) दी, जिसमें प्रत्येक जीव को वैज्ञानिक नाम (वंश + प्रजाति) दिया गया। उदाहरण: Homo sapiens (मनुष्य)।
हैकल (Ernst Haeckel) – तीन जगत पद्धति का प्रस्ताव रखा (पौधे, जन्तु और प्रोटिस्टा)।
कॉपलैंड (Copeland) – चार जगत पद्धति प्रस्तुत की।
व्हिटेकर (R.H. Whittaker, 1969) – पाँच जगत पद्धति दी (Monera, Protista, Fungi, Plantae, Animalia), जो आज भी सबसे लोकप्रिय है।
समझ गया। अब मैं हेडिंग्स को यथावत रखकर और बीच के पेज ब्रेक हटाकर इसे प्रवाह में प्रस्तुत कर रहा हूँ। यहाँ अंतिम रूप है:
वर्गीकरण की पद्धतियाँ (Systems of Classification)
जीवों का वर्गीकरण जीव विज्ञान की एक प्रमुख शाखा है। इसके माध्यम से वैज्ञानिक जीवों की समानताओं और विभिन्नताओं को समझते हैं तथा उनके बीच विकासीय सम्बन्धों का पता लगाते हैं। समय के साथ अलग-अलग वैज्ञानिकों ने विभिन्न पद्धतियाँ प्रस्तुत कीं, जिनमें चार मुख्य पद्धतियाँ प्रमुख हैं।
1. कृत्रिम पद्धति (Artificial System)
यह सबसे पुरानी और सरल पद्धति थी। इसमें वर्गीकरण केवल एक या दो बाह्य लक्षणों के आधार पर किया जाता था। उदाहरण के लिए पौधों को उनके आकार और आकृति के आधार पर शाक (herbs), झाड़ी (shrubs) और वृक्ष (trees) में बाँटा जाता था। इसी प्रकार जीवन अवधि के आधार पर इन्हें एकवर्षी (annuals), द्विवर्षी (biennials) और बहुवर्षी (perennials) में विभाजित किया जाता था। जन्तुओं को भी उनके आवास के अनुसार स्थलीय (terrestrial) और जलीय (aquatic) वर्गों में रखा जाता था। इस पद्धति की सबसे बड़ी सीमा यह थी कि इससे जीवों के बीच वास्तविक या प्राकृतिक सम्बन्ध का पता नहीं चलता था। उदाहरण के लिए, पक्षी, कीट और चमगादड़ सभी उड़ सकते हैं, लेकिन उनकी शारीरिक रचना और विकासीय इतिहास अलग है। इसी प्रकार मछलियाँ, व्हेल और जल-सर्प केवल जल में रहने के आधार पर एक समूह में आ सकते थे, जबकि इनकी संरचना और जीवन-क्रियाएँ भिन्न हैं। अतः यह पद्धति केवल सतही जानकारी देती थी।
2. प्राकृतिक पद्धति (Natural System)
प्राकृतिक पद्धति अपेक्षाकृत उन्नत थी और इसमें वर्गीकरण कई लक्षणों के तुलनात्मक अध्ययन पर आधारित था। इसमें जीवों की संरचना, कार्यिकी (physiology), व्यवहार, स्वभाव और विकास में पाई जाने वाली समानता और विभिन्नता का विश्लेषण किया जाता था। इस पद्धति को सबसे पहले अंग्रेज जीवविज्ञानी जॉन रे (John Ray, 1627–1705) ने प्रस्तुत किया। इसमें जीवों को पहले मुख्य समूहों में और फिर बार-बार विभाजन करते हुए छोटे वर्गों में रखा जाता था। इस प्रणाली का लाभ यह था कि यदि किसी जाति का स्थान वर्गीकरण में ज्ञात हो जाए, तो उसके कई सामान्य और विशिष्ट लक्षणों का अनुमान लगाया जा सकता था। साथ ही यह भी समझा जा सकता था कि उस जाति का अन्य समूहों के जीवों से क्या प्राकृतिक सम्बन्ध है।

3. जातिवृत्तीय पद्धति (Phylogenetic System)
जातिवृत्तीय पद्धति जीवों के विकासीय इतिहास (phylogeny) पर आधारित थी। इस विचार के अनुसार, कोई भी जाति क्रमिक विकास की प्रक्रिया से धीरे-धीरे परिवर्तित होकर नई जाति में परिवर्तित होती है। लैमार्क (Lamarck) ने यह विचार प्रस्तुत किया कि जीव अपने परिवेश के अनुसार बदलते हैं और ये परिवर्तन पीढ़ी दर पीढ़ी चलते रहते हैं। इसके बाद चार्ल्स डार्विन (Charles Darwin) ने प्राकृतिक चयन का सिद्धांत दिया, जिससे यह सिद्ध हुआ कि जीवों में होने वाले छोटे-छोटे परिवर्तन लंबे समय में नई प्रजातियों का निर्माण करते हैं। इस पद्धति में जीवों को उनके पूर्वजों और विकासीय सम्बन्धों के आधार पर वर्गीकृत किया गया। आज के समय में जीवाश्म विज्ञान, भ्रूणविज्ञान, तुलनात्मक शरीर रचना और आणविक जीवविज्ञान (जैसे DNA और RNA अनुक्रमण) से प्राप्त जानकारी इस पद्धति को और भी मजबूत बनाती है। उदाहरण के लिए, विकास क्रम में मछलियों से उभयचर, फिर सरीसृप और उसके बाद पक्षी व स्तनधारी विकसित हुए।
4. संख्यात्मक या फेनेटिक पद्धति (Numerical / Phenetic System)
यह सबसे आधुनिक और वैज्ञानिक पद्धति है, जिसे 20वीं शताब्दी में विकसित किया गया। इसमें वर्गीकरण के लिए अधिक से अधिक लक्षणों का उपयोग किया जाता है और प्रत्येक लक्षण को समान महत्व दिया जाता है। इन लक्षणों की तुलना करने के लिए गणितीय सूत्रों और कंप्यूटर तकनीक का प्रयोग होता है। इस प्रक्रिया को सांख्यिकीय वर्गीकरण (Numerical Taxonomy) भी कहा जाता है। इसमें जीवों की समानता और विभिन्नता को संख्याओं और अंकों में व्यक्त किया जाता है। जितने अधिक लक्षण दो जीवों में समान होंगे, उतना ही वे एक-दूसरे से अधिक निकट माने जाएंगे। इस प्रणाली को 1963 में सोकल (Sokal) और स्नीथ (Sneath) ने विकसित किया। आज यह पद्धति आणविक जीवविज्ञान और जैवसूचना विज्ञान (Bioinformatics) से जुड़कर वर्गीकरण को और अधिक सटीक व वस्तुनिष्ठ बना रही है।
जीवन के तीन डोमेन का आधार
वैज्ञानिकों ने जीवन को तीन डोमेन में बाँटने का विचार तब दिया जब आणविक स्तर (molecular level) पर शोध हुआ। पहले सभी प्रोकैरियोट (जिनमें नाभिक नहीं होता) को एक ही समूह Monera में रखा जाता था। लेकिन 1970–80 के दशक में rRNA (राइबोसोमल RNA) अनुक्रमण की तकनीक से पता चला कि प्रोकैरियोट्स के अंदर भी दो बहुत अलग-अलग प्रकार के समूह हैं – Bacteria और Archaea।
इस खोज के आधार पर 1990 में वैज्ञानिक कार्ल वोज़ (Carl Woese) ने जीवन को तीन डोमेन्स में बाँटा:
- Bacteria
 - Archaea
 - Eukarya
 
तीनों डोमेन्स के लक्षण (Characteristic Features)
1. बैक्टीरिया (Bacteria)
- बैक्टीरिया (Bacteria / Eubacteria / True Bacteria)
 - बैक्टीरिया प्रोकैरियोटिक जीव हैं और हमारी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में सबसे ज़्यादा मिलने वाले सूक्ष्मजीव हैं। ये हर जगह पाए जाते हैं – मिट्टी, पानी, हवा, पौधों और जानवरों के शरीर में। कुछ बैक्टीरिया हमारे लिए हानिकारक होते हैं और बीमारियाँ फैलाते हैं, लेकिन बहुत से बैक्टीरिया उपयोगी भी होते हैं। ये दही, पनीर, सिरका जैसे खाद्य पदार्थ बनाने में मदद करते हैं और हमारे पेट में भोजन पचाने में भी सहायक होते हैं। यही कारण है कि बैक्टीरिया को कभी दुश्मन, कभी दोस्त कहा जाता है।
 - बैक्टीरिया के विशेष लक्षण (Characteristic Features of Bacteria)
 - प्रोकैरियोटिक कोशिकाएँ
 - बैक्टीरिया प्रोकैरियोटिक होते हैं, यानी इनमें असली नाभिक (nucleus) और झिल्ली-बद्ध अंगक (organelles) नहीं होते।
 - इनका DNA साइटोप्लाज़्म में गोलाकार (circular chromosome) रूप में पाया जाता है।
 - कोशिका झिल्ली (Cell Membrane)
- बैक्टीरिया की कोशिका झिल्ली unbranched fatty acid chains और ester linkage से बनी होती है।
 - यह विशेषता इन्हें यूकार्या (Eukarya) के साथ जोड़ती है क्योंकि उनकी कोशिका झिल्ली भी ऐसी ही होती है।
 
 - कोशिका भित्ति (Cell Wall)
- बैक्टीरिया की कोशिका भित्ति में peptidoglycan पाया जाता है।
 - यही लक्षण इन्हें आर्किया और यूकार्या से अलग करता है।
 - कोशिका भित्ति ही बैक्टीरिया को विभिन्न Gram-positive और Gram-negative समूहों में बाँटने का आधार है।
 
 - एंटीबायोटिक पर संवेदनशीलता (Antibiotic Sensitivity)
- बैक्टीरिया पारंपरिक एंटीबायोटिक दवाओं (जैसे पेनिसिलिन) से प्रभावित होते हैं।
 - लेकिन ये उन एंटीबायोटिक्स से प्रभावित नहीं होते जो यूकार्या पर असर डालते हैं।
 
 - विशिष्ट rRNA (Unique rRNA)
- बैक्टीरिया का rRNA अन्य डोमेन्स (Archaea और Eukarya) से अलग होता है।
 - इसके विशेष अणविक क्षेत्र (molecular regions) केवल बैक्टीरिया में ही पाए जाते हैं।
 
 

बैक्टीरिया बहुत विविध समूह हैं। इनमें प्रमुख प्रकार शामिल हैं:
- Mycoplasmas: ये बैक्टीरिया बिना कोशिका भित्ति के होते हैं।
 - Cyanobacteria: प्रकाश संश्लेषी (photosynthetic) बैक्टीरिया जिन्हें नील-हरित शैवाल भी कहते हैं।
 - Gram-positive bacteria: जिनकी कोशिका भित्ति मोटी होती है और Gram stain में नीला-बैंगनी रंग लेती है।
 - Gram-negative bacteria: जिनकी कोशिका भित्ति पतली होती है और Gram stain में गुलाबी रंग लेती है।
 
उदाहरण: Escherichia coli (E. coli), Streptococcus, Cyanobacteria।
2. आर्किया (Archaea)
- आर्किया (Archaea) के विशेष लक्षण
 - आर्किया सूक्ष्म जीवों का वह समूह है जो आकार में तो बैक्टीरिया जैसा ही दिखाई देता है, लेकिन इनकी आणविक संरचना और जीवन-प्रणाली इन्हें बैक्टीरिया और यूकार्या दोनों से अलग बनाती है। वैज्ञानिकों ने इन्हें एक अलग डोमेन में रखा क्योंकि इनके जीन और कोशिकीय संरचना में विशेष अंतर पाए जाते हैं। इनके प्रमुख लक्षण इस प्रकार हैं:
 - प्रोकैरियोटिक कोशिकाएँ
- आर्किया प्रोकैरियोट होते हैं यानी इनमें नाभिक (nucleus) और झिल्ली-बद्ध अंगक (membrane-bound organelles) नहीं पाए जाते।
 - कोशिका का आनुवंशिक पदार्थ (DNA) साइटोप्लाज्म में बिखरा हुआ होता है।
 - यद्यपि ये प्रोकैरियोट हैं, लेकिन इनके कई गुण यूकार्या से मिलते-जुलते हैं।
 
 

- विशिष्ट कोशिका झिल्ली (Cell Membrane)
- बैक्टीरिया और यूकार्या की कोशिका झिल्ली में ester linkage पाया जाता है, जबकि आर्किया में ether linkage पाया जाता है।
 - आर्किया की झिल्ली शाखित हाइड्रोकार्बन श्रृंखलाओं (branched hydrocarbon chains) से बनी होती है, जिनमें कभी-कभी छल्लेदार संरचनाएँ भी होती हैं।
 - ये ether linkages बहुत अधिक स्थायी होते हैं और उच्च तापमान तथा अम्लीय परिस्थितियों को सहन करने में सक्षम होते हैं।
 
 - कोशिका भित्ति (Cell Wall)
- आर्किया की कोशिका भित्ति में peptidoglycan अनुपस्थित होता है।
 - कुछ आर्किया की कोशिका भित्ति pseudopeptidoglycan या अन्य विशेष प्रकार के प्रोटीन और शर्करा से बनी होती है।
 - यही कारण है कि इनकी कोशिका संरचना बैक्टीरिया से भिन्न होती है।
 
 - एंटीबायोटिक प्रतिरोध (Antibiotic Sensitivity)
- आर्किया उन एंटीबायोटिक्स से प्रभावित नहीं होते जो बैक्टीरिया पर असर डालते हैं।
 - लेकिन, ये कुछ ऐसे एंटीबायोटिक्स से प्रभावित होते हैं जो यूकार्या को प्रभावित करते हैं।
 - इसका मतलब है कि आर्किया की कोशिकीय क्रियाएँ बैक्टीरिया और यूकार्या दोनों से अलग हैं।
 
 - विशिष्ट rRNA (Unique rRNA)
- आर्किया में पाया जाने वाला rRNA बैक्टीरिया और यूकार्या दोनों से अलग होता है।
 - इनके rRNA के कुछ हिस्से केवल आर्किया में ही पाए जाते हैं और यही इनके स्वतंत्र विकासीय मार्ग का प्रमाण है।
 
 - चरम परिस्थितियों में जीवित रहना (Survival in Extreme Conditions)
 
उदाहरण: Methanogens (मीथेन बनाने वाले), Halophiles (अत्यधिक खारे पानी में रहने वाले), Thermophiles (गर्म पानी में रहने वाले)।
3. यूकैरिया (Eukarya)
यूकैरिया वह डोमेन है जिसमें वे सभी जीव शामिल हैं जिनकी कोशिकाएँ यूकैरियोटिक होती हैं। इसका मतलब है कि इनकी कोशिका में असली नाभिक (nucleus) और झिल्ली-बद्ध अंगक (membrane-bound organelles) पाए जाते हैं। यही विशेषता इन्हें बैक्टीरिया और आर्किया से अलग बनाती है।
यूकैरियाके मुख्य लक्षण (Characteristic Features of Eukarya)
- यूकैरियोटिक कोशिकाएँ
- इनकी कोशिकाओं में नाभिक झिल्ली से घिरा होता है।
 - कोशिका के भीतर कई विशेष अंगक होते हैं, जैसे – 80 s ribosome, माइटोकॉन्ड्रिया, गोल्जी तंत्र, एंडोप्लाज़्मिक रेटिकुलम और पौधों में क्लोरोप्लास्ट।
 
 - कोशिका झिल्ली (Cell Membrane)
- बैक्टीरिया की तरह, इनकी कोशिका झिल्ली unbranched fatty acid chains और ester linkages से बनी होती है।
 
 - कोशिका भित्ति (Cell Wall)
- सभी यूकार्या जीवों में कोशिका भित्ति नहीं होती।
 - पौधों और कवकों (fungi) में कोशिका भित्ति होती है, लेकिन इसमें peptidoglycan नहीं पाया जाता।
 - जानवरों की कोशिकाओं में कोशिका भित्ति पूरी तरह अनुपस्थित होती है।
 
 - एंटीबायोटिक्स के प्रति संवेदनशीलता
- यूकार्या पर वे एंटीबायोटिक्स असर नहीं करते जो बैक्टीरिया को मारते हैं।
 - लेकिन कई एंटीबायोटिक्स सीधे यूकार्योटिक कोशिकाओं पर प्रभाव डालते हैं।
 
 - विशिष्ट rRNA (Unique rRNA)
- यूकार्या का rRNA, बैक्टीरिया और आर्किया दोनों से अलग होता है।
 - इसके विशेष आणविक क्षेत्र (molecular regions) केवल इसी डोमेन के जीवों में पाए जाते हैं।
 
 
यूकैरिया के चार प्रमुख राज्य (Four Major Kingdoms of Eukarya)
- प्रोटिस्टा (Protista)
- ये सबसे सरल यूकार्योटिक जीव हैं।
 - अधिकतर एककोशिकीय (unicellular) लेकिन कुछ बहुकोशिकीय भी हो सकते हैं।
 - इनमें शैवाल (algae), प्रोटोजोआ (protozoa), स्लाइम मोल्ड्स और यूग्लीना जैसे जीव शामिल हैं।
 - ये कभी पौधों जैसी विशेषताएँ दिखाते हैं (प्रकाश संश्लेषण करते हैं) और कभी जानवरों जैसी (भोजन को निगलकर पचाते हैं)।
 
 - फंजाइ (Fungi)
- ये एककोशिकीय (yeast) या बहुकोशिकीय (mushroom, molds) हो सकते हैं।
 - इनमें कोशिका भित्ति होती है लेकिन ऊतक (tissues) का संगठन नहीं होता।
 - ये प्रकाश संश्लेषण नहीं करते बल्कि अवशोषण (absorption) द्वारा भोजन प्राप्त करते हैं।
 - उदाहरण – यीस्ट, मशरूम, पेनिसिलियम, ऐसपर्जिलस।
 
 

- प्लांटी (Plantae)
- सभी पौधे इस राज्य में आते हैं।
 - ये बहुकोशिकीय और ऊतक-विशिष्ट जीव हैं।
 - कोशिका भित्ति सेलूलोज़ से बनी होती है।
 - पोषण का मुख्य साधन प्रकाश संश्लेषण है।
 - उदाहरण – काई (mosses), फर्न्स, शंकुधारी पौधे (conifers), फूल वाले पौधे।
 
 - एनीमेलिया (Animalia)
- इसमें सभी जानवर आते हैं।
 - कोशिका भित्ति अनुपस्थित होती है।
 - पोषण का मुख्य साधन भोजन का निगलना (ingestion) है।
 - उदाहरण – स्पंज, कीड़े-मकोड़े, कीट, मछलियाँ, पक्षी, स्तनधारी (जिसमें मनुष्य भी शामिल है)।